भाषाई विविधता एवम् भोजपुरी भाषा
( हिन्दी दिवस _ 14 सितंबर के विशेष संदर्भ में )
सहायक आचार्य,हिंदी
जवाहरलाल नेहरू स्मारक पीजी कॉलेज महाराजगंज
किसी भी समाज की सांस्कृतिक पहचान का आधार उसकी भाषा में सन्नीहित होता है! वस्तुत भाषा ही वह प्राण तत्व होती है जो किसी संस्कृति को काल के निर्बाध प्रवाह में भी सतत जीवंत और गतिशील रखती है! यही कारण है कि अपनी मातृभाषा के प्रति एक गहरा सांस्कृतिक आग्रह देखने को मिलता है! परंतु भारत के संदर्भ में यह सांस्कृतिक आग्रह उत्तर से दक्षिण तक अनेक भाषाई विवादों की जमीन तैयार करने वाला ही सिद्ध हुआ है ! दुर्भाग्यवश इन सब विवादों के केंद्र में देश की राजभाषा हिंदी ही है ।
भारत हमेशा से ही सामासिकता का चौराहा रहा है चाहे वह भाषा का क्षेत्र हो या साहित्य, संस्कृति या सामाजिक प्रक्रियाओं का। 21वीं सदी में भी भारत कई धर्मो , संप्रदायों , विचारों , समुदायों और लगभग 387 जीवित भाषाओं का निवास स्थान है।
एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है। बल्कि हमारे जीवन मूल्यों ,संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची परिचायक भी है। बहुत सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है। जिसे दुनिया भर में समझने,बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं !
भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद 1953 ई से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रति वर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा जो हिंदी भाषा के महत्व को दर्शाता है।
1965 ईस्वी में दक्षिण भारत में हुए भाषाई दंगों और हिंदी की प्रभुता एवं आर्यकरण के भय ने अंग्रेजी को उसके स्थान पर बना रहने दिया ।बाद में 1965 में अंग्रेजी को उपराजभाषा का दर्जा दे दिया गया । संविधान की आठवीं अनुसूची में देश की कुछ भाषाओं को आधिकारिक मान्यता दी गई है जो पिछले 50 वर्षों में 14 से 22 भाषाओं तक पहुंच गई है। भारत की बहुभाषिकता और अंग्रेजी के निरंतर बने रहने की स्थिति से यह बात साबित हो जाती है कि भारतीय सामासिक संस्कृति और बहुभाषिकता के परिप्रेक्ष्य में भाषा नियोजन का कोई आसान समाधान नहीं है।
पहले अंग्रेजी और अब हिंदी के साथ क्षेत्रीय भाषाओं की इस बढ़ती शक्ति के आगे छोटे व कमजोर स्थानीय समुदायों की भाषाएं अपने घुटने टेक रही हैं ।इनमें कुछ भाषाएं राजनीतिक और सामाजिक कारणों से आगे निकलने की कोशिश में लगी है (जैसे मैथिली ,संथाली, बोडो भोजपुरी )परंतु सरकारी मान्यता भर से कोई भाषा बाजार की भाषाओं से मुकाबला नहीं कर सकती ।
भाषिक एवं साहित्यिक दृष्टि से भोजपुरी की अधिकांश संस्कृति मौखिक ही रही है तथा इसका परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता रहा है । यह लोक परंपराओं ,प्रथाओं, रीतियों,विश्वासों से जुड़ी हुई है तथा मौखिक परंपरा के धरोहर है ।
जो राष्ट्र अपने प्राचीन परंपरा को भूल जाते हैं वह धीरे-धीरे पत्नोन्मुख हो जाता है । संस्कृति किसी क्षेत्र के निवासियों का जीवन यापन करने का ढंग है। गंगा, सरयू, गंडक, नारायणी आदि नदियों की उज्जवल पवित्र धारा से पावन भोजपुरी क्षेत्र अपने अंक में एक विशिष्ट सांस्कृतिक इतिहास को छुपाए हुए हैं । यहां की प्रत्येक वस्तु सांस्कृतिक मूल्यों की बोध करती दिखाई देती है । प्राचीन समय से ही भोजपुरी क्षेत्र की संस्कृति अपने आप में एक अनूठी संस्कृति रही है और काशी इस संस्कृति का केंद्र बिंदु रहा है क्योंकि काशी प्रारंभ से ही धार्मिक बिंदु रहा है और भोजपुरी की संस्कृति धर्म प्रधान संस्कृति रही है । बुद्ध की संस्कृति पर भी भोजपुरी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है । गोरखनाथ की नाथ पंथ की हठयोग ने भोजपुरी संस्कृति के क्षेत्र विशेष का विस्तार किया ।
कबीर तथा अन्य निर्गुण संत कवियों का भोजपुरी के संस्कृति के विकास में विशेष योगदान रहा है।साधु संत की संस्कृति को भोजपुरी जनपद का एक विशेष योगदान माना जा सकता है ।जिस समय देश गुलाम था उसे समय भोजपुरी संस्कृति का राजनीतिक रूप भी प्रकट हुआ था देश धर्म के नाम पर अपना सब कुछ लुटा देने का आदर्श भोजपुरी संस्कृति की महान विशेषता रही है ।
भोजपुरी संस्कृति की एक विशेषता मानवतावाद की रही है । भोजपुरी वासी बड़ी मेहनत से खेती करके कष्ट पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए भी मानववाद का नारा बुलंद किए हुए हैं ।भोजपुर क्षेत्र में निवास करने वाला हर एक प्राणी एक सांस्कृतिक सूत्र में बैठा एक विराट तत्व का ही रूप है, यह देश-विदेश कहीं भी जाता है अपनी सांस्कृतिक धरोहर को साथ ले जाता है ।
भोजपुरी भाषा में जीवन का सुख दुख ,हर्ष विषाद, आशा निराशा ,लाभ हानि सभी का समावेश है जाति पात का भेदभाव नहीं है ,धार्मिक झगड़ा नहीं है ,आदमी को आदमी से बैर नहीं है ,खून खराबा नहीं है, आतंकवाद नहीं है। यह हर धर्म ,जाति ,वर्ग की है इनमें सच्ची एकता , राष्ट्रीयता है ,विश्व बंधुत्व की भावना है जो लोगों को जोड़ने का मंत्र देती है तोड़ने का नहीं ।
भोजपुरी में शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के अतिरिक्त अनेक विद्वान है जो भोजपुरी के विकास में जीवन भर प्रयत्नशील रहें एवं आज भी सतत प्रयास जारी है । संत कबीर ,भिखारी ठाकुर ,डॉ राजेंद्र प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन ,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ,भागवत शरण उपाध्याय ,गणेश चौबे, डॉ विवेक राय, मुक्तेश्वर बिहारी उर्फ चतुरी चाचा इत्यादि का नाम सर्वोपरि है ।
भारत गावों का देश है और यदि हम अपनी सच्ची तस्वीर देखना चाहते हैं तो हमें गांव की ओर रुख करना पड़ेगा । उसकी सभ्यता संस्कृति को समझना होगा । इस तरह से स्वयं को स्वयं के लिए खोजना होगा। हमारे देश में इसके प्रति उदासीनता ही रही है ।लोकगीतों का संग्रह ,उनकी सामाजिक सांस्कृतिक व्याख्या ,स्वरलिपियों को बनाना ,सुरक्षित एवम संरक्षित रखना इत्यादि । अर्थात लोकगीतों के संदर्भ में उसके समस्त क्षेत्र की व्याख्या करना, उसे समझना और वर्तमान जरूरत को समझते हुए उन्हें समाज के विकास में प्रयुक्त करना अत्यंत आवश्यक है। भोजपुरी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने की मांग भी तेजी से उठ रही है ।